जांगिड अथवा विश्वकर्मा जाति का इतिहास

हे अंगिर: नमन | अग्नि (पवित्र आग ) को खोज निकालने वाले अंगिरस ऋषि कहे गये है। वे मनुष्य के पुरखा है," पितरो मनुष्या" जिन्होने प्रकाश को खोज निकाला, सूर्य को चमकाया और सत्य के स्वर्लोक मे चढ गये। अंगिरा ने सत्य की सर्वोच्च अभिव्यक्ति को धारण किया। उन्होने कर्म पूर्ण सिद्ध द्वारा अग्नि को प्रज्जवल्लित किया था। एक महान शक्ति होकर उत्पन्न हुये। तुझे वे बल का पुत्र कहते है।, हे अंगिर:।

दिसम्बर 24, 2024 - 00:07
जांगिड अथवा विश्वकर्मा जाति का इतिहास

जांगिड अथवा विश्वकर्मा जाति का इतिहास


आर्य जाति का मूलोत्स इतिहासकारों ने यूरेशिया मे खोजा है जिसको वे प्राय: मधयेशिया भी कहते है। वैसे तो इस विषय मे विद्वानों के विभिन्न मत है लेकिन इतिहासविदों का बहुमत आर्य जाति का उत्स या निकास दक्षिणा रुस के स्ट्रेपी (स्थपती) प्रदेश को ही मानता है। स्ट्रेपी का स्थान कैस्पियन सागर और जार्जिया के पास है इसी स्थान पर आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व 9 लगभग 3000 पूर्व मे) वही पर मानव जाति के आर्यवंश का मूल निवास माना जाता है।
भारत भूमि के प्राचीन शासक यहीं से उजडकर आर्यवंश दक्षिण मे ईरान के अजबेराइन प्रान्त से लेकर मिस्त्र और इराक तथा टर्की के मार्ग मे रोम (इटली) और यूनान तक गया है। दक्षिणी रुस से ही फैलाकर वह मध्यरुस के आस्र्टिया- हंगरी के कोरोंपोंडस (कौरव-पांडव) प्रदेश से फैलाकर यूरोप के पश्चिम मे स्पेन तक गया।
कालान्तर मे स्पेन और फ्रांस के समुद्री तटों से ही उसका एग्लों और सैक्सन कबीला अमेरिका और इंग्लैण्ड तथा आयरलैण्ड और स्काटलैण्ड तक गया है।
 आर्यो के इन्ही कबीलों ने जहां पर ईरान मे लग्भग 1650 ईपूर्व मे आक्रमण करके गुटी लोगों को हराया है जिनके नाम पर ईरान के एक प्रदेश का नाम ही गुटीयम है, जिसको आजकल सुलेमान कहते है। यह ईरान का पूर्वी भाग है जो कि खुरासाम और सीसतान से संलग्र है। यही भग भारत से लगा हुआ है। अतएव आर्य अभिजन लगभग 1500 ईपूर्व मे इसी मार्ग से भारत मे सिन्ध मे प्रविष्ट हुए है। इनकी दूसरी शाखा रुस और चीन के सीमावर्ती क्षेत्र तुर्किस्तान और उजबेकिस्तान से ब्लोचिस्तान के मार्ग से खैबर और ब्प्लन के दर्रो से पंजाब व कश्मीर मे प्रविष्ट हुई है।
 यहीं पर वैदिक दासराजन्ययुद्ध हुआ है। दक्षिण रुस स्ट्रेपी अथवा ईरान के उत्तर मे स्थित अजबैराइन (आयर्चजों) प्रदेश से जों आर्य अभिजन आक्रमणकारी बनकर मिस्त्र और सीरिया की ओर गया है, उसका नाम इतिहासकारों ने कसाइट लिखा है। इस कबीले ने लगभग 1650 ई पूं मे मिस्त्र मे स्थित हिटाईट या हित्ती य खत्ती जाति पर आक्रमण किया है। य कबीला भी आर्यमूल का ही था।
ईरान और मिस्त्र मे आर्यों क संघर्ष जिटी(जाट) और हत्ती अथवा खत्ती लोगों से ही हुआ है। आर्यों का यह खत्ती कबीला कसाइट कबीले से युद्ध मे हार गया जो कि मूलरुप से मिस्त्र मे फैला हुआ तथा इसी की एक शाखा पश्चिम मे समुद्र पार करके मैक्सिकों मे भी पहुँची थी। जिसने वहाँ पर अजटेक सभ्यता का विकास किया था, जिसको माया सभ्यता भी कहा जाता है। संभवत: यह नाम भय से ही पडा है। क्योंकि ब्राह्मण आर्यों ने मय जैसे वास्तु-शिल्पियों के वंशजों को अथवा असुए ही कहा है। इसका कारण आर्यों के इस हत्ती या खत्ती कबीले का पूर्व निवास मिस्त्र और सीरिया मे रहना ही रह हो सकता है।


कहना नही होगा कि आर्य ब्राह्मण सीरिया मे बसने वाले अहुर (वरुण देव) के उपासको को ही असुर मानते थे। जब आर्य ब्राह्मण या उनका कसाइट अथवा हत्ती या फिर खत्ती जाति के लोगों को साथ लेकर आया है। कहने की आवश्यकता नही है कि आर्यब्राह्मणों ने इस कबीले को पहले ही विजित करके अपना दास बना लिया था। वरना पहले ये लोग बडे ही सम्पन्न किसान थे जि कि अपने अन्न को खत्तों (गडो) मे गाडकर जमा रखते थे संभवत इसीलिए इनका नाम हत्ती से खत्ती पडा है।  ऎसा डाँ. अतलसिह खोखर का मत है।


 महाभारत मे इसे वंश मे शिशुपाल को दिखाया गया है। जिसका राज्य केन और नर्मदा नदियों के मध्य मे था। वैदिक साहित्य मे ईश्वर का एक नाम विश्वकर्मा भी है। जो कि वहां पर उसी को सृष्टि का कर्ता माना गया है।


लेकिन पौराणिक साहित्य मे आकर विश्वकर्मा देवशिल्पी९देवोंके मिस्त्री) बन जाते है। जैसे कि अश्विनीकुमार मित्र और वरुण अथवा नासत्य देवों के वैध है। वहाँ पर विश्वकर्मा कबीले के लोगोंको त्वंष्टा कहा गया है जो कि आर्यों के लिए रथों क मिर्माण करते थे। और उनके लिए यज्ञार्थ समिधाओं का भी संचय करते थे। अतएव वैदिक साहित्य के अनुशील्से यही ज्ञात होता है कि यह कबीला अथवा जाति आर्यमूल का रहते हुए भी कालान्तर मे आर्य (ब्राह्मण) का दास ही बन गया था। अतएव इसका सामाजिक स्तर शिल्पियों (छिप्पयों) की भांति आर्यदासों का अथवा सतशूद्रों का ही था।