दिग्विजयी ब्रह्मर्षि जंगिड
अग्नि(पवित्र आग ) को खोज निकालने वाले अंगिरस ऋषि कहे गये है। वे मनुष्य के पुरखा है," पितरो मनुष्या" जिन्होने प्रकाश को खोज निकाला, सूर्य को चमकाया और सत्य के स्वर्लोक मे चढ गये। अंगिरा ने सत्य की सर्वोच्च अभिव्यक्ति को धारण किया। उन्होने कर्म पूर्ण सिद्ध द्वारा अग्नि को प्रज्जवल्लित किया था। एक महान शक्ति होकर उत्पन्न हुये। तुझे वे बल का पुत्र कहते है।, हे अंगिर:।

अंगिरा(दर्शन) आदियुग
स्वयंभू ब्रह्मा
हे अंगिर: नमन
अग्नि(पवित्र आग ) को खोज निकालने वाले अंगिरस ऋषि कहे गये है। वे मनुष्य के पुरखा है," पितरो मनुष्या" जिन्होने प्रकाश को खोज निकाला, सूर्य को चमकाया और सत्य के स्वर्लोक मे चढ गये। अंगिरा ने सत्य की सर्वोच्च अभिव्यक्ति को धारण किया। उन्होने कर्म पूर्ण सिद्ध द्वारा अग्नि को प्रज्जवल्लित किया था। एक महान शक्ति होकर उत्पन्न हुये। तुझे वे बल का पुत्र कहते है।, हे अंगिर:।
महर्षि अरविन्द (वेद रहस्य ग्रन्थ से)
हमारा प्राचीन इतिहास स्वयंभू ब्रह्मा से प्रारम्भ होता है। वेद शास्त्र तथा पुराणो के अनुसार ये ही प्रथम मानव थे जिनसे समस्त मानव प्रजा का विस्तार हुआ है। जिनका दूसरा नाम आपव प्रजापति भी था। सबसे पहले इनके मुख से वेद वेदवाणी निकली। वेदव्यास जि महाभारत मे कहते है-
हे स्वयंभू भगवान! पुरातन काल मे वेद आप ही के द्वारा गाया गया था। ऋषियों तक उनको स्मरण करने वाले ही है कर्ता नही।
स्वयंभू ब्रह्मा यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय के प्रथम बारह मन्त्रो के मन्त्रदृष्टा ऋषि भी है। इस प्रकार ऋषि परम्परा का सूत्रपात करने वाले है। आदि होने के कारण इन्हे आदि ब्रह्मा भी कहा जाता है। आपकी सर्वप्रथम तपस्या एंव सर्वप्रथम यज्ञ करने का वर्णन शतपथ ब्राह्मण १३/२/८/१-१४ मे मिलता है। ब्रह्म वै स्वयंभू तपोअतप्यत। तदैक्षत न वै तपस्यान्नत्यमस्ति हन्ताहं भूतेषू आत्मानं जुह्रानि भूतानि चात्मानि इति...
- [स्वयंभू ब्रह्मा ने तप किया और देखा कि, तप की अन्तता नही है उसने अपने आप को सब भूतो मे हवन किया और सब भूतो को अपने आत्मा मे हवन किया। इसमे वह सबमे श्रेष्ठ बना। स्वयंभू ब्रह्मा के इस सर्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान भुवन पुत्र विश्वकर्मा ने किया। शतपंथ ब्राह्मण मे वर्णित स्वयंभू ब्रह्मा के सर्वमेघ यज्ञ की पुष्टी महाभारत करता है। वन पर्व के अध्याय ११४ के श्लोक १९ मे लोमश ऋषि कहते है-
- एतत स्वयंभुवो सजन वनं दिव्यं प्रकाशते । यत्रायजत राजेन्द्र विश्वकर्मा प्रतापवान॥]
वनवास जे समय अर्जुन इन्द्र के पास शिक्षा प्राप्त करने गये थे। लोमश ऋषि ने अर्जुन द्वारा प्रदत्त सन्देश युधिष्ठिर आदि पाण्डवो को सुनाकर उन्हे साथ लेकर यात्रा प्रारम्भ की। वर्तमान मे उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल के तीर्थो पर होते हुए वे उत्कल प्रदेश मे प्रविष्ठ हुये उस समय उन्होने युधिष्ठिर से ये शब्द कहे थे- हे राजन! यह स्वयंभू ब्रह्मा का दिव्य वन प्रकाशित हो रहा है। यहाँ प्रतापी राजाओ के इन्द्र(भौवन) विश्वकर्मा ने यज्ञ किया था।
- १. यह दिव्य वन परसुराम की तपो भूमि महेन्द्र पर्वत के निकट उत्कल प्रदेश मे था अत: स्वयंभू भारत मे ही उत्पन्न हुए।
- २. इनका काल महाभारत से पूर्व है। इनके काल पश्चात भौवन विश्वकर्मा हुये तथा उन्होने सर्वमेघ यज्ञ किया ।
स्वयंभू ब्रह्म अमैथुनी सृष्टि के प्रथम जीव थे। इने पौत्र स्वायंभुव मनु से मनुओ की परम्परा का प्रवर्तन हुआ।
इनके अतिरिक्त स्वयंभू ब्रह्मा के साथ मानव पुत्र हुये जिन्हे आदि युग के सप्तर्षि भी कहा जाता है।
इनके नाम मरीचि.अत्रि अंगिर पुलस्थ पुलह कृत तथा वशिष्ठ है। ये सभी कृत वेदों के पूर्ण ज्ञाता थे। ये सातों प्रवुति मार्ग प्रवर्तक वेदाचार्य थे अर्थात इन्होने वेद धर्म का प्रचार करते हुए सृष्टि का वुद्तार किया। वर्तमान हिन्दु जगत इन्ही सप्तर्षियों के सन्तान है इसीलिए इन्हे सप्त ब्रह्म भी कहा जाता है। इनकी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिये ध्रुव की निकटतम परिक्रमा करने वो सात तारों का इन्ही सप्तऋषियों के नाम पर नामकरण किया गया। वायु पुराण अध्याय५ मे ब्रह्मा के मानस पुत्रों की संख्या६ तथा शिव पुराणा रुद्र्संहिता खण्ड२मे १० लिखी गई है जिनमे तीन ऋषि भृगु,नारद और दक्ष को मानस पुत्र माना है वस्तुत: प्रलय के पश्चात सर्वप्रथम बिना माता-पिता के संयोग से अमैथुनी सृष्टि उत्पन्न हिती है जिनकी संख्या अनेको होती है। ब्रह्म उन्हे अपने मन से उत्पन्न करता है।अत: ऎसी सन्तान ब्रह्म के मानस पुत्रो मे गिनी जाती है। ऎसी सन्तानो मे सात को प्रमुखता दी गई है। वायु पुराण तथा शिवपुराण के तीन से अधिक व्यक्तियों को प्रमुखता प्रदान कर दश मानस पुत्र मान लिये। इन ऋषियों ने संसार मे बडे-बडे आश्रम स्थापित कर वेद ज्ञान तथा मानव धर्म को शिक्षा प्रदान की।यह कार्य परम्परागत चलता रहा तथा इन ऋषियों के वंशज ऋषि भी इन्ही नामो के गौत्रों से जाने जाते थे।
स्वायंभुव मनु
स्वयंभु ब्रह्म के पौत्र स्वायंभु नमु हुए। ये ही प्रथम मन्वन्तर(स्वायंभु मन्वन्तर) के प्रवर्तक है इन्हे वैराज प्रजापति भी कहा जाता है।
इन्ही की वंश परम्परा मे आगे चलकर पांच और मनु हुये। छ्ठे नमु(चाक्षुष मनु) के अन्तिम काल मे इतिहास प्रसिद्ध जलप्रलय हुई।
प्रथम मनु से छ्ठे चाक्षुष मनु तक के काल का धर्म ग्रन्थों मे मे आदियुग,देवयुग तथा कृतयुग के नाम से कथन किया गया है। वस्तुत: ये तीनो सतयुग के ही तीन विभाग है। इस काल मे छ: मनु तथा उनके वंशजों ने समस्त पृथ्वी पर राज्य किया।
- [स्वायंभुव मनु की धर्मपत्नी शतरुपा थी ये दोनो ऎतिहासिक महापुरुष है इन्ही दोनो को यहुदी ईसाई तथा मुसलमान धर्मावलम्बी बाबा आदम और हब्बा कहते है। रुस की भी प्राचीन मान्यता यही है। समस्त पुरातन साहित्य धर्म इन्हे ही अपना आदि पुरुष मानता है। वह सातवें वैवस्वत मनु को हजरत नौवा नाम देता है।]
स्वायंभुव ने वेद के आधार पर आदि मानव धर्मशास्त्र की रचना कर उसका प्रचलन किया। महाभारत काल तक समस्त मानव समाज इसी धर्म शास्त्र का पालन करता था, वेदव्यास ने महाभारत आदि पर्व अ११६ मे स्वायंभुव मनु का निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया-धर्मफलदं श्रेष्ठ विन्दन्ति मानवा:। पृथे: मनु: स्वायंभुवोअबवात॥शापग्रस्त पाण्डु अपनी पत्ने कुन्ती को आपत्काल मे नियोग को सनातन मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल बताते हुए आदि मनु रचित धर्मशास्त्र का उदाहरण करते हुए कहते है-
- [हे कुन्ति! स्वायंभुव मनु ने कहा है कि मानव धर्म फल के दिन वाले पुत्र को ही श्रेष्ठ पुत्र कहते हैऎसा पुत्र अपने वीर्य के अतिरिक्त अन्य से भी प्राप्त किया जा सकता है।]
इद प्रकार वेदो ने विधवा या अशक्ता पतियुक्ता के दो या तीन सन्तान उत्पन्न करने का अधिकार दिया है। महाभारत तक यह वेदाज्ञा प्रचलित थी। इसी शास्त्रदेश से दीर्घतमा ने सुदेष्णा वशिष्ठ्ने दमयन्ती से तथा व्यास ने अन्बिकादि से उत्पन्न किये थे।
महाभारत के बाद ही वेदब्रह्म सनातन धर्म चलाया जिसके फलस्वरुप विधवाओं की दुर्गति हुई। हमारे समाज ने इन्हे अमान्य कर प्राचीन सनातन धर्म पर ही आचरण किया।महर्षि दयानन्द ने पुन: उस वेदोक्त सनातन धर्म का पुनरुद्ध्र कर विधवा विवाह का प्रचलन किया।
स्वायंभुव मनु के धर्म शास्त्रों मे अनेक प्रमाण मिलते है। महाभारत शान्ति पर्व मे स्वयंभुव मनु तथा सिद्धो के संवाद का वर्णन मिलता है
मनु के सन्तति
अधिकतम पुराणो के अनुसार स्वयंभुव मनु के शतरुपा के प्रियव्रत तथा उतानपाद दो पुत्र तथा आकृति एंव प्रसुति दो पुत्रियां हुई। केवल भागवत पुराण तीसरी पुत्री देवहूति का वर्णन करता है परन्तु अन्य पुराणो को देखते हुए यह कथन टीक नही लगता।
प्रियव्रत समस्त पृथ्वी के प्रजापति थे इनके सात पुत्र थे।उनमे पृथ्वी के सातो महाद्वीप बांट दिये।
ज्येष्ठ पुत्र को जम्बुद्वीप(एशिया)का राज्य मिला। छ: महाद्वीपों के राज्य मिले। आग्रीध ने अपने पुत्रो मे जम्बुद्वीप का राज्य विभक्त कर दिया।
नाभि के पुत्र ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत हुये जिन के नाम पर हिमवर्ष का नाम भारतवर्ष पडा
ध्रुव पद प्राप्ति
स्वायंभुव मनु के द्धितीय पुत्र उतानपाद के प्रथम पत्नी सुनीति के ध्रुव तथा द्धितीय पत्नी सुरुचि से उत्तम हुये। सौतेली मांसे तिरस्कृत ध्रुव ने घोर तपस्या कर अटल(ध्रुव) पद प्राप्त किया। उत्तरी दिशा के अटल निर्देशक तारे को ध्रुव नाम्से उसकी तपस्या को चिरस्थायी कर दिया है। उत्तम यक्षों द्वारा मारा गया उसक पुत्र औतम मनु के नाम से तीसरा मनु हुआ।
प्रथम दक्ष की पुत्रियों से वंश विस्तार
स्वायंभुव मनु की औत्री आकृति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ। इनके पुत्र यज्ञ तथा पुत्रे दक्षिणा सन्तान हुई। इनके पुत्र याम इस मन्वन्तर के देवता हुये
अंगिरा के ह्र्दय मे अथर्ववेद का प्रकाश
ब्रह्मर्षि अंगिरा के ह्र्दय मे सर्वप्रथम अथर्ववेद का प्रकाश हुआ अत: वेदाचार्यो मे ये अग्रणी हुये। ज्ञान चार है ऋग ज्ञानवेद है। यजु यज्ञ वेद है साम,उपासना वेद है तथ अथर्व विज्ञान वेद है ज्ञान कर्म उपासना तथा विज्ञान चारों का साध्य है ज्ञान कर्म और उपासना का लक्ष्य विज्ञान है। वेदवित वही है जिस ने ज्ञान कर्म और उपासना द्वारा विज्ञान की प्राप्ति की है।
अत: ऋग यजु तथा साम इन तीनो का लक्ष विज्ञान वेद(अथर्ववेद) है। इस दृष्टि से चारोवेदो मे अथर्ववेद की महत्ता सुस्पष्ट एंव सर्वोपरी है। इस धारण को वेद स्वत: सम्पुष्ट करत है- यंस्माध्चो अपातक्षन यजुर्यस्मादपाक्षन समानि यस्य लोकामान्यथर्वागिसों मुखम। स्कम्भं तं भूहि कतम: स्विदेव स:अर्थात उस स्कम्भ जगदाधार विराट परमेश्वर की महिमा को कौन जान सकता है। इससे ऋग्वेद का विस्तार हुआ, जिससे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है।
और अथर्ववेद जिसका मुख है यहाँ अथर्ववेद को मुख कह इसकी सर्वोच्चता का प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यज्ञ के चार प्रधान ऋत्वियो के नेता ब्रह्मा के लिये अथर्ववेदित होने की अनिवार्यता रखी गयी है।
अथर्ववेद काण्ड १० सूक्त ७ मंत्र १४ स्वत: यह प्रमाणित करता है कि अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ये चार ऋषि सर्व प्रथम सृष्टि मे उत्पन्न हुये।
इन्ही के हृदयो मे क्रमश: ऋग, यजु, साम तथा अथर्ववेद का प्रकाश हुआ।
महर्षि दयानन्द ने भी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका मे वेदोत्पति विषय पर लिखते हुये इसी की पुष्टि की है।" अग्निवायुरव्यंगिरोमनुष्य देहधारि जीवद्वारेण परमेश्वरेण श्रुतिर्वेद: प्रकाशीकृत इति बोध्यम"[पहले ब्रह्मा ने जगत रचा तब ब्राह्मण ही थे बाद मे जैसे कर्म किये, उस कर्म के अनुसार जातियां बनी। सतयुग मे एक ही वर्ण ब्राह्मण था त्रेता मे चार वर्ण बने। ऋषि भारद्वाज]
यह निश्चय है कि परमेश्वर ने अग्नि वायु आदित्य तथा अंगिरा इन देहधारी जीवो के द्वारा वेद का अर्थ प्रकाश किया। इन चारो ने ही ब्रह्मा को वेद ज्ञान दिया इसी कारण ये ब्रह्मार्षि कहलाये। अंगिरा का अर्थ यही रूढ हुआ कि देवां ओर ऋषियो को वेद पढाने वाला आचार्य।